मखाने को सभी लोग जानते हैं। यह एक सूखे मेवे की तरह प्रयोग किया जाता है। मखाने को संस्कृत में मखान्न, पद्मबीजाभ, पानीयफल कहा जाता है। आम भाषा में इन्हें मखाना या फूलमखाना कहते हैं। इन्हें एक विशेष प्रकार के कमलगट्टे (कमल के बीज) को भून कर तैयार किया जाता है। इसका पौधा कमल-कुल का है और उथले पानी में पाया जाता है। मखाने के बीज और कमलगट्टे के आयुर्वेदिक गुण-धर्म सामान होते हैं।
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मखाने बहुत ही पौष्टिक होते हैं। व्रत-उपवास तथा खीर, सब्जी बनाने में इनका प्रयोग किया जाता है। देखने में यह सफ़ेद, गोल और मुलायम होते हैं। मखाने की मांग न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में है। इन्हें गोरगोन, फाक्सनट तथा प्रिकली लिली भी कहते हैं। इनकी खेती भारत, चीन, जापान, कोरिया आदि में हजारों साल से की जाती रही है। भारत में यह सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, सुपौल, समस्तीपुर, दरभंगा और मधुबनी जिले में बहुतायत रूप से होते है।
दरभंगा एवं मधुबनी इलाके, देश में उत्पादित मखाने का करीब 40 प्रतिशत पैदा करते हैं तथा पूरी दुनिया का 80 से 90 प्रतिशत मखाना बिहार से ही होता है। बिहार के अतिरिक्त, यह कश्मीर, बंगाल, और झारखण्ड में भी पाए जाते हैं।
मखाना न केवल मेवा है बल्कि औषधीय रूप से भी प्रयोग किया जाता है। इसके सेवन पित्त और रक्तपित्त दूर होते हैं। यह वीर्य और फर्टिलिटी को बढ़ाते हैं। यह पित्त रोगों, पाचन एवं प्रजनन सम्बन्धी विकारों के इलाज के लिए भी उपयोगी हैं। पेचिश की रोकथाम में भी इसका उपयोग लाभदायक है।
मखाना बनाने की विधि :
मखाने के क्षुप कमल की तरह होते हैं और उथले पानी वाले तालाबों और सरोवरों में पाए जाते है। मखाने की खेती के लिए तापमान 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तथा सापेक्षिक आर्द्रता 50 से 90 प्रतिशत होनी चाहिए।
मखाने की खेती के लिए तालाब चाहिए होता है जिसमें 2 से ढाई फीट तक पानी रहे। इसकी खेती में किसी भी प्रकार की खाद का इस्तेमाल नहीं किया जाता। खेती के लिए, बीजों को पानी की निचली सतह पर 1 से डेढ़ मीटर की दूरी पर डाला जाता है। एक हेक्टेयर तालाब में 80 किलो बीज बोए जाते हैं।
बुवाई के महीने दिसंबर से जनवरी के बीच के होते है। बुवाई के बाद पौधों का पानी में ही अंकुरण और विकास होता है। इसकी पत्ती के डंठल एवं फलों तक पर छोटे-छोटे कांटे होते हैं। इसके पत्ते बड़े और गोल होते हैं और हरी प्लेटों की तरह पानी पर तैरते रहते हैं।
अप्रैल के महीने में पौधों में फूल लगना शुरू हो जाता है। फूल बाहर नीला, और अन्दर से जामुनी या लाल, और कमल जैसा दिखता है। फूल पौधों पर कुछ दिन तक रहते हैं।
फूल के बाद कांटेदार-स्पंजी फल लगते हैं, जिनमें बीज होते हैं। यह फल और बीज दोनों ही खाने योग्य होते हैं। फल गोल-अण्डाकार, नारंगी के तरह होते हैं और इनमें 8 से 20 तक की संख्या में कमलगट्टे से मिलते जुलते काले रंग के बीज लगते हैं। फलों का आकार मटर के दाने के बराबर तथा इनका बाहरी आवरण कठोर होता है। जून-जुलाई के महीने में फल १-२ दिन तक पानी की सतह पर तैरते हैं। फिर ये पानी की सतह के नीचे डूब जाते हैं। नीचे डूबे हुए इसके कांटे गला जाते हैं और सितंबर-अक्टूबर के महीने में ये वहां से इकट्ठा कर लिए जाते हैं।
बीजों से मखाना कैसे बनता है?
फलों में से बीजों को निकाल लिया जाता है। धूप में इन बीजों को सुखाया जाता है। सूखे बीजों को लोहे की कढ़ाई में सेंका जाता है। सेंकने से बीजों की अन्दर की नमी भाप में बदल जाती है और जब इन सिंके हुए बीजों को कड़ी सतह पर रखकर लकड़ी के हथौड़ों से पीटते हैं तो गर्म बीजों का कड़क खोल फट जाता है और अब बीज फटकर मखाना बन जाता है। इन्हें रगड़ कर साफ़ किया जाता है और पॉलिथीन में पैक कर दिया जाता है।
साभार - HZ
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